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    संत सम्मेलन अन्तर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव कुरूक्षेत्र

    Publish Date: दिसम्बर 12, 2021

    आदरणीय शंकराचार्य ज्ञानानंद तीर्थ जी,
    आदरणीय योग ऋषि स्वामी रामदेव जी,
    आदरणीय कार्षिणी स्वामी गुरुशरणानंद जी,
    आदरणीय आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद जी,
    आदरणीय मलूका पीठाधीश्वर राजेंद्र दास जी,
    आदरणीय स्वामी ज्ञानानंद जी,
    आदरणीय सिख संत बाबा भूपेंद्र सिंह जी,
    आदरणीय जैन संत लोकेश मुनि जी,

    आदरणीय संत बंसीपूरी जी,
    आदरणीय संत साक्षी गोपालदास जी,
    आदरणीय श्री नायब सिंह सैनी सांसद कुरूक्षेत्र,
    जिला के प्रशासनिक अधिकारीगण

    विश्व हिंदू परिषद एवं देशभर से आए प्रमुख माननीय संत महात्मा साहेबान, उपस्थित विद्वतजन, श्रद्धालुगण, धर्म-प्रेमी बहनो और भाइयो, पत्रकार एवं छायाकार बन्धुओं !

    मानवमात्र को जीवन की सच्ची राह दिखाने वाली गीता के संदेश का श्रवण और मनन करने के लिए आयोजित इस आयोजन पर मैं जन-जन को शुभकामनाएं देता हूँ और इस आयोजन के लिए कुरूक्षे़त्र विकास बोर्ड की पूरी टीम को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं देता हूँ ।

    यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
    इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, विनाश का कार्य होता है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर आता हूँ और इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ।”
    द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने असूरों और अधर्मियों का संहार करने के लिए धरती पर अवतार लेकर कुरूक्षेत्र की भुमि को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और महाभारत के युद्व मंे इस पावनधरा से अर्जून को गीता का संदेश दिया।
    मैं इस कुरूक्षेत्र की पावन धरा को नमन करता हूँ। कुरुक्षेत्र को भारतवर्ष की सर्वाधिक पावन भूमि माना जाता है। यह भूमि वैदिक संस्कृति की पालक रही है। इस पवित्र भूमि की गणना विश्व के प्राचीनतम तीर्थस्थल के रूप में होती है। माना जाता है कि गंगा के जल से तो मुक्ति प्राप्त होती है, वाराणसी (काशी) की भूमि और जल में मोक्ष देने की शक्ति है, परन्तु कुरूक्षेत्र के जल, थल और वायु-तीनों ही मुक्ति प्रदान करते हैं।
    धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र समवेता युयुत्सवरू।
    मामकारू पांडवाश्चौव किमकुर्वत संजय। ।
    धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय ! मेरे और पाण्डव पुत्रों ने धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में यह युद्ध की रचना रच डाली है।
    आज कुरूक्षेत्र का नाम सुनते ही महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए उपदेश का धर्मग्रन्थ गीता के रूप में अक्ष उभरकर सामने आता है। इसको पढ़कर पाठक इस नतीजे पर पहुँचता है कि यह ग्रन्थ मानवमात्र के लिये प्रेरणादायक है।
    श्रीमद्भगवतगीता विश्व में प्रचलित सभी सभ्यताओं संस्कृतियों व पंथों के मर्म व सार को प्रकाशित करने वाला पवित्र ग्रन्थ है। भारत युगों-युगों से संस्कृति एवं सभ्यता, ज्ञान विज्ञान एवं समाज संरचना में विश्व गुरु रहा है। श्रीमद्भगवतगीता ने विश्व को ध्यान, अध्यात्म के साथ-साथ समानता, बन्धुत्व, अधिकार, कृतव्यों, मानवीय व नैतिक मूल्यों का बोद्ध करवाया है। इसलिए आज भी हम विश्व के सामने एक आदर्श स्थिति में खड़े है। श्रीमद्भगवतगीता विश्वगुरू भारत की धरोहर है।
    गीता में कर्मवाद व कर्तव्य का मुख्य वर्णन है। कर्मवाद व कर्तव्य से ओतप्रोत ज्ञानी, और कर्मठ व्यक्ति को गीता जीवन की सही राह दिखा रही है। गीता किसी एक मजहब का पवित्र ग्रंथ न होकर बल्कि समस्त प्राणी जगत के कल्याण की अनुठी वैश्विक प्रेरणा है। इसलिए गीता की दृष्टि वैश्विक है। इसलिए गीता की दृष्टि वैश्विक है।
    कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
    लोकसंग्रहमेवापि सन्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।
    कर्तव्य पथ पर बढ़ते हुए लोक संग्रह के भाव से कर्म हो। निजहित व स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं बल्कि परहित व जनहित की व्यापक सोच बनाकर कर्म किए जाएं। इससे विश्व में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना और अधिक प्रबल होती है और संसार में मानवीय मूल्यों को बढ़ावा मिलता है।
    गीता में सन्यासी और योगी को समान बताया गया है। जीवन के हर पड़ाव पर सुख-दुःख, लाभ-हानि हर स्थिति में अडिग रहना, सन्तुलित रहना-यही योग है। इस प्रकार आचरण करने वाला ही मानव सच्चा योगी कहलायेगा, वही सच्चा संन्यासी है।
    गीता के एक अन्य प्रसंग की चर्चा करना बहुत जरूरी है। गीता का अर्जुन केवल पाण्डुपुत्र अर्जुन नहीं है अपितु यह अर्जुन सारी मानवता का प्रतिनिधि है। धर्म की लड़ाई करने के लिये अर्जुन जब रणक्षेत्र में पहुँचा तो वह अपने पितामह, अपने गुरु और चाचा-ताऊ आदि रिश्तेदारों की मोह-ममता के चक्कर में पड़कर काँप उठा और युद्ध न करने पर अड़ गया। श्रीकृष्ण ने उसे अपना विराट रूप दिखाकर यह समझाया कि संसार की सारी गतिविधियाँ उस परम शक्ति के बल पर ही चल रही हंेै। मनुष्य को यह अहंकार नहीं करना चाहिए कि वह ही सारे कामों का कर्त्ता-धर्त्ता है। इसी विराट रूप में यह भी दिखाया गया है कि देवता हांे या राक्षस, मनुष्य हों या पशु, पक्षी हों या कीड़े-मकोड़े–बड़े से बड़े और छोटे से छोटे प्राणी का संसार में महत्व है। इसलिए प्राणी का प्राणी से वैर-विरोध, कुंठा, द्वेष व घृणा नहीं होनी चाहिए।
    जब जब मनुष्य जीवन में राह से भटकता है या असमंजस की स्थिति में होता है तब तब एक सच्चे मार्गदर्शक की आवश्यकता होती हैं। मेरे जीवन में भी भागवत गीता ने यह भूमिका अदा की है जीवन के समक्ष जब भी नयें प्रश्न उपस्थित हुए, मेरा रुख गीता की ओर हुआ और मैंने संतोषजनक जवाब मिला है। कुछ सरल सी अवधारणाएं गीता में दी गई जिसको लेकर मनुष्य सदैव अनुतरित रहता हैं।
    ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
    सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
    कहने का भावार्थ है कि:- भौतिक विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को इच्छा जागृत हो जाती है, और ये ही इच्छाएं व कामनाएं क्रोध का कारण बनती है।
    भगवान श्रीकृष्ण ने विषयासक्ति के दुष्परिणामों के बारे में गीता में जो सन्देश दिया है वह मनुष्य के लिए तप और योग का द्वार खोलता है।
    भगवान श्री कृष्ण ने जिस दिन अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, उसे गीता जयंती (ळपजं रंलंदजप) के रूप में मनाया जाता है यानी श्रीमद्भगवदगीता के जन्मदिन के तौर पर इस दिन को देखा जाता है।

    यह शुक्ल एकादशी के दिन मनाई जाती है जो इस वर्ष 14 दिसम्बर को मनाई जा रही है। इस दिन विधिपूर्वक पूजन व उपवास करने पर हर तरह के मोह से मोक्ष मिलता है। यही वजह है कि इसका नाम मोक्षदा भी रखा गया है।
    गीता जयंती का मूल उद्देश्य यही है कि गीता के संदेश का हम अपनी जिंदगी में किस तरह से पालन करें और आगे बढ़ें।
    त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
    कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
    अर्थः- काम, क्रोध व लोभ यह तीनों नरक के द्वार हैं और नाश करने वाले हैं। इसलिए इन तीनों को त्याग कर मानव कल्याण के लिए आगे बढ़कर कार्य करना चाहिए।
    गीता का ज्ञान हमें काम, क्रोध, लोभ व अज्ञानता से बाहर निकालने की प्रेरणा देता है। गीता मात्र एक ग्रंथ नहीं है, बल्कि वह अपने आप में एक संपूर्ण जीवन है। इसमें पुरुषार्थ व कर्तव्य के पालन की सीख है।
    श्रीमद्भगवद्गीता जिसे सम्मान से गीतोपनिषद् भी कहा जाता है, भारतीय धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सार है। जो वेदज्ञान नहीं पा सकते, दर्शन और उपनिषद् का स्वाध्याय नहीं कर सकते भगवद्गीता उनके लिए अतुल्य सम्बल है। जीवन के उस मोड़ पर जब व्यक्ति स्वयं को द्वन्द्वों तथा चुनौतियों से घिरा हुआ पाता है और कर्तव्य-अकर्तव्य के असमंजस में फंस जाता है, भगवद्गीता उसका हाथ थामती है और मार्गदर्शन करती है।
    गांधी जी का कहना था कि ‘जब कभी संदेह मुझे घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है। मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूं। इसमें मुझे अवश्य ही एक छन्द मिल जाता है जो मुझे सान्त्वना देता है। तब मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ।

    गीता को लेकर अल्बर्ट आइंस्टाइन से बेहतर वर्णन कौन कर सकता है, जिन्हें अफसोस था कि वे अपने यौवन में इस ग्रन्थ के बारे में जानकारी नहीं थी नहीं तो उनके जीवन की दिशा कुछ और होती। उनका कहना था कि ‘जब मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं तो इसके अलावा अन्य ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

    बाल गंगाधर तिलक ने अपनी गीता रहस्य नामक पुस्तक में कहा है कि श्रीमद्भगवतगीता हमारे धर्म ग्रंथों का एक अत्यंत तेजस्वी और निर्मल हीरा है। स्वामी विवेकानंद गीता को सभी धर्मग्रंथों का आधार मानते थे।
    गीता के सन्देश को जनसामान्य के लिए बोधगम्य बनाने के लिए आदिशंकराचार्य, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, भास्कराचार्य, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य, बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, सुभाषचन्द्र बोस, स्वामी चिन्मानन्द व अन्य महानुभावों ने गीता से ही प्रेरणा ली है। गीता के सन्देश से प्रेरणा पाकर देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के लिए सर्वस्व न्यौछावर किया था। आज उन्हीं की बदोलत देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे हमें इस महान उपदेश से अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने का आशीर्वाद प्रदान करें। साथ ही साथ देश को सुदृढ़, एक भारत-श्रेष्ठ भारत बनाने की शक्ति प्रदान करें।
    श्रीमद्भगवतगीता के सन्दर्भों से प्रेरणा लेकर ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ‘‘आत्मनिर्भर भाारत’’ का बीड़ा उठाया है। भारतीय संस्कृति का दुनिया में प्रचम फहराने के लिए और युवा शक्ति को चैनेलाईज कर देशहित में उपयोग करने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लागु की गई है। इस शिक्षा नीति में गीता के उपदेश के आधार पर नैतिक मूल्यों, नेतृत्व, कर्म, कर्तव्य, जिम्मेवारी, प्रगति का समावेश किया गया है, जो भारत को फिर से विश्व गुरू बनाने का मार्ग प्रसस्त करेगी।

    इस अवसर पर मंच पर आसीन सभी संत-महात्माओं, तथा सभा मंे उपस्थित देश-विदेश से आए सभी विद्वानों विदुषियों, देवियों तथा सज्जनों का, मैं सन्त सम्मेलन में हृदय से स्वागत एवं अभिनन्दन करता हूं। गीता देश के जन-मानस की नस-नस में वास करती है। गीता के प्रति आम-जन के आकर्षण को और उबारना है। इसके साथ-साथ बच्चों, विद्यार्थियों में गीता के पठन-पाठन की संस्कृति और अधिक विकसित करनी है। जिससे हम विश्वभर में गीता का सन्देश पहुंचा पाएंगे।

    समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
    शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।

    तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
    अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।

    भावार्थ यह है कि:-
    जो मनुष्य मित्र एवं शत्रु के रूप में, आदर और अपमान में समान रहते हैं और गर्मी-सर्दी में सुख-दुःख में भी समान बने हुए हैं, और मोह रहित हैं। जो मनुष्य निंदा और प्रशंसा दोनों को बराबर मानता है, वह शांत स्वभाव का है। इसके साथ-साथ जो व्यक्ति छोटी से छोटी वस्तु में भी संतुष्टि प्राप्त कर लेता है, वह सहनशील है। ऐसा पहुंचा हुआ व्यक्ति भगवान का सच्चा भक्त है।

    मैं आशा करता हूं कि संत सम्मेलन में देशभर से आए गीता प्रेमी सन्तों ने गीता की सार्वभौमिक प्रासंगिकता को सामाजिक एवं वैश्विक परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया है। इससे पूरी दुनिया में गीता के उपदेश की बयार बहेगी और भारतवर्ष के साथ कुरूक्षेत्र का नाम और विख्यात होगा।

    जय हिन्द-जय गीता!