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    संत शिरोमणी कबीर साहेब 626वां प्रक्टोत्सव समारोह, जीवीएम कालेज, सोनीपत

    Publish Date: जून 6, 2023

    सांसद श्री रमेश चंद्र कौशिक जी,
    विधायक, राई श्री मोहन लाल बडौली जी,
    विधायक, गन्नौर श्री मती निर्मला चैधरी जी,
    पूर्व वाईस चैयरमेन श्री ललित बत्रा जी,
    मुख्यमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार श्री राजीव जैन जी,
    भाजपा जिला अध्यक्ष, सोनीपत श्री तीर्थ राणा जी,
    भाजपा प्रदेश प्रवक्ता डॉ राकेश मेहरा जी,

    उपस्थित पदाधिकारीगण, महानुभाव, शिक्षकगण, प्रिय छात्राओं, भाईयों-बहनों व पत्रकार बंधुओं।
    मैं अपने आप को महान संत कबीरदास जी के प्रक्टोत्सव के पावन अवसर पर जीवीएम कालेज, सोनीपत में आयोजित जिला स्तरीय कार्यक्रम में शामिल होकर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं तथा इस पावन पवित्र आयोजन के अवसर पर आप सभी आयोजकों और कार्यक्रम में शामिल हुए सभी महानुभाव को हार्दिक मुबारकबाद एवं शुभकामनाएं प्रदान करता हूं।
    देश के इतिहास में ऐसे अनेकों महापुरूष हुए हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक जीवन दर्शन के रहस्यों को सीधे और सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। सूरदास, तुलसीदास, कालीदास सहित अनेक महान कवियों ने अपनी-अपनी भाषाशैली में समाज को नया रास्ता दिखाया है। इन कवियों की श्रखंला में महान कवि कबीरदास को भी कभी भूलाया नही जा सकता। आज उनकी जयंती समारोह में मैं उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।
    संत कबीरदास जी भक्तिकाल के प्रमुख कवि थे। कबीरदास जी न सिर्फ एक संत थे बल्कि वे एक महान विचारक और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने पूरे जीवन में समाज की बुराईयों को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास किया और कई दोहे और कविताओं की रचना करके समाज को नई दिशा दिखाई।
    कबीरदास जी हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि थे जिन्होंने समाज में फैले आडंबरों को अपनी लेखनी के बलबूते पर उस पर कुठाराघात किया था। उन्होंने समाज को अपने दोहों के माध्यम से जीवन जीने की कई सीख भी दी हैं।

    कबीरदास जी का विश्वास था कि ईश्वर एक है, वो एक ईश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने हिंदू धर्म में मूर्ति की पूजा को नकारा। उन्होंने कहा कि पत्थर को पूजने से कुछ नही होगा।
    कबीर पाथर पूजे हरि मिले, तो पूजू पहार।
    घर की चाकी कोऊ न पूजे, जा पीस खाए संसार।।

    उन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने का तरीका बताया कि दया भावना हर एक के अंदर होनी चाहिए। जब तक यह भावना इंसान के अंदर नही होती तब तक वे ईश्वर से साक्षातकार नही कर सकता। कबीरदास जी ने समाज को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
    धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए।
    माली सीचे सौ घड़ा, ऋतू आए फल होए।।
    इस दोहे में कबीर जी मन को समझाते हुए धैर्य की परिभाषा बता रहे हैं। इसी प्रकार कबीर जी ने कहा किः-
    निंदक नियरे रखिए, आंगन कुटि छवाय।
    बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

    इस का अभिप्राय है कि स्वयं की निंदा करने वालों से कभी भी घबराना नही चाहिए अपितु उनका सम्मान करना चाहिए। क्योंकि वह हमारी कमियां हमें बताते हैं और हमें उन कमियों को दुर करने का प्रयास करना चाहिए।
    कबीरा निंदक न मिलौ, पापी मिलै हजार।
    एक निंदक के माथै सौ, सौ पापीन का भार।।
    कबीर जी कहते हैं कि पाप करने वाले हजारों लोग मिल जाएं, लेकिन दुसरों की निंदा करने वाला न मिले।
    माला फैरत जग भया, फिरा न मन का फेर।
    कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।।

    कबीर जी का यह दोहा हमें आत्म मंथन करने का प्रेरित करता है। वे कहते हैं कि हरि नाम की जप की माला फेरते-फेरते कई युग बीत गए, लेकिन मन का फेरा नही फिरा। अर्थात् शारीरिक रूप से हम कितना भी जप कर ले। हमारा कल्याण नही होगा। जब तक मन ईश्वर चिंतन में नही लगेगा।

    उन्होंने गुरू की महत्वता पर बल देते हुए कहा किः-
    गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
    बलिहारि गुरू आपकी गोबिन्द दियो बताय।।

    संत कबीरदास जी का जन्म सन् तेरहा सौ अठान्नवें ई0 के आसपास लहरतारा ताल, काशी के समक्ष हुआ था। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि थे। कबीरदास जी का धरती पर पदार्पण ऐसे समय में हुआ, जब हमारा समाज अंधविश्वास, जात-पात और रूढ़िवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने समाज के मर्म को समझते हुए एक पथ-प्रदर्शक के तौर पर लोगों का मार्गदर्शन किया।

    ‘कबीर’ का मतलब ‘महान’ होता है, जिसका परिचय उन्होंने अपने बचपन से देना शुरू कर दिया था। नीरू और नीमा नामक दंपति ने लालन-पालन करते हुए उनका नाम ‘कबीर’ रखा था। कबीर जी ने बचपन से ही अभाव में रहते हुए भी समाज को भाव का आभास करवाया। घर में रहते हुए उन्हें पढऩे का अवसर तो प्राप्त नहीं हो सका परन्तु कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वे अपने प्रारभिंक जीवन से ही कविताई करने लगे।
    एक महान कवि के रूप में कबीरदास जी ने समाज से अज्ञानता को दूर करने के लिए लोगों को सच्चे मानवतावादी होने के लिए प्रेरित किया। कबीर जी ने कहा कि व्यक्ति को दूसरों की बुराई से पहले स्वयं में झांक कर देखना चाहिए। कबीर जी का भाषा पर अधिकार होने के कारण उनकी कविताओं में भक्ति सहित अनेक रसों का स्पर्श पाया जाता है।
    उनकी कविताओं में दिव्य दृष्टि का आभास होता है। उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए बाह्य आडंबरों, मूर्ति पूजा, व्यक्ति पूजा तथा पत्थर पूजा को मात्र दिखावा करार देते हुए कहा कि…
    ‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
    ताते वह चक्की भली, पीस खाये संसार’

    कबीर जी ने हमेशा सभी इंसानों को एक समान मानते हुए उन्हें समानता का आचरण करने पर बल दिया। जात-पात का विरोध करते हुए उन्होंने प्रभु भक्ति का जो महान संदेश दिया, उसको सदियों तक याद किया जाएगा।
    कबीर जी ऐसे पहले सन्त हुए, जिन्होंने लोगों को व्यावहारिक जीवन शैली की भी शिक्षा प्रदान की। उन्होंने जुलाहे के तौर पर कपड़े बुनने का कार्य करते हुए न केवल परिवार का पालन-पोषण किया बल्कि संप्रदायों, जातियों और मतों को मानने वाले लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने का भी कार्य किया।
    कबीर जी पंद्रहवीं सदी के रहस्यवादी कवि और संत थे। उन्होंने अपनी प्रेरणादायी रचनाओं से सामाजिक सरोकारों से जुडे अनेक विषयों को सरलता से समझाने का प्रयास किया। उन्होंने व्यक्ति को अपने कार्यों के प्रति कभी लापरवाही नही बरतने की प्रेरणा दी।
    उनकी शिक्षाओं और सिद्धांतों पर चलते हुए हमें अपने जीवन का उत्थान करना चाहिए। हमें अपने सभी महापुरूषों के दिखाए मार्ग तथा अपनाए सिद्धांतों का अनुशरण करके अपने जीवन में धारण करना चाहिए।
    आप सभी को भी अपने स्तर पर सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत रहना चाहिए ताकि प्रत्येक कमजोर व्यक्ति समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके।
    जयहिन्द।