देश-धर्म के लिए श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का महान बलिदान
इतिहास पुरूष कभी भी राजसत्ता प्राप्ति, जमीन-जायदाद, धन सम्पदा या यश प्राप्ति के लिए लड़ाईयां नहीं लड़ते। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ऐसे इतिहास पुरूष थे, जिन्होनें ताउम्र अन्याय, अधर्म, अत्याचार और दमन के खिलाफ तलवार उठाई और लड़ाईयां लड़ी। गुरू जी की तीन पीढ़ियों ने देश धर्म की रक्षा के लिए महान बलिदान दिया। आज देश अपनी स्वतंत्रता की 75वी वर्षगांठ ’’आजादी के अमृत महोत्सव’’ के रूप में मना रहा है, ऐसे में पूरे देश में स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों, बलिदानियों को याद किया जा रहा है। सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को उनकी जयंती पर नमन कर प्रत्येक भारतवासी गर्व महसूस कर रहा है।
गुरु गोबिन्द सिंह सिक्खों के दसवें गुरु थे। वे एक महान दार्शनिक, प्रख्यात कवि, निडर एवं निर्भीक योद्धा, युद्ध कौशल, महान लेखक और संगीत के पारखी भी थे। उनका जन्म 1666 में पटना में हुआ । वे नौवें सिख गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के इकलौते बेटे थे, जिनका बचपन का नाम गोबिंद राय था।
सन् 1699 ई0 में बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना कर पांच व्यक्तियों को अमृत चखा का ’पांच प्यारे’ बना दिए। इन पांच प्यारों में सभी वर्गो के व्यक्ति थे। इस प्रकार से उन्होंने जात-पात मिटाने के उद्देश्य से अमृत चखाया । बाद में उन्होंने स्वयं भी अमृत चखा और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए।
गुरु गोबिंद सिंह ने एक खालसा वाणी “वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह” स्थापित की। साथ ही उन्होंने आदर्शात्मक जीवन जीने और स्वयं पर नियंत्रण के लिए खालसा के पांच मूल सिद्धांतों की भी स्थापना की। जिनमें केस, कंघा, कड़ा, कछ, किरपाण शामिल है। ये सिद्धान्त चरित्रनिर्माण के मार्ग थे। उनका मानना था कि व्यक्ति चरित्रवान होकर ही विपरित परिस्थितियों व अत्याचारों के खिलाफ लड़ सकता है।
गुरू गोबिन्द सिंह जी की वीरता और लोकप्रियता से आस पास के पहाड़ी राजा द्वेष करने लगे यहां तक बिलासपुर के राजा भीमचन्द सहित गढ़वाल, कांगड़ा के राजाओं ने मुगलशासक औरंगजेब के पास जाकर गुरु गोबिंद सिंह के खिलाफ लड़ने के लिए सैनिक सहायता मांगी और कहा कि इसके बदले में वे वार्षिक लगान देंगें। भीम चंद की माता चम्पादेवी ने गुरु गोबिंद सिंह के खिलाफ युद्ध का विरोध किया और कहा कि गुरु गोबिंद सिंह एक महान संत है, उनके साथ युद्ध नहीं बल्कि उनको घर बुला कर सम्मान देना चाहिए।
इसी प्रकार जब औरंगजेब की सेना का जनरल सैयद खान युद्ध के लिए आनंदपुर साहिब जाने लगा तो रास्ते में साधुरा नामक स्थान पर उनकी बहन नसरीना से मिले। उनकी बहन ने सैयद खान को गुरू गोबिन्द सिंह के खिलाफ युद्व करने से रोका और कहा कि वे पहले से ही गुरु जी की अनुयायी हैं और गुरु गोबिंद सिंह एक धार्मिक व आध्यात्मिक संत हैं। यहां तक कि उन्होंने पहले से ही सैयद खान की हार की भविष्यवाणी कर दी थी। नसरीना खान ने अपने पति व बेटों को गुरू गोबिन्द सिंह की सेना में भर्ती करवा दिया था। सैयद खान युद्ध के लिए निकल पड़ा। युद्ध के मैदान में नीले घोड़े पर सवार श्री गुरू गोबिन्द सिंह जब मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार रहे थे तो सैयद खान गुरू जी के सामने आया तब गुरू जी स्वयं घोड़े से उतरे और वे सैयद खान को मारने के लिए तैयार नहीं हुए। सैयद खान गुरू जी की आभा और तेज से प्रभावित हुआ और युद्ध मैदान छोड़कर योग, ध्यान व शान्ति प्राप्ति के लिए पर्वतों में चला गया।
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार पूत्र थे, जिनका नाम साहिबजादे अजीत सिंह, साहिबजादे जुझार सिंह, साहिबजादे फतेह सिंह, साहिबजादे जोरावर सिंह था। उन्होंने अपने चारों पुत्र धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान किए। मुगल शासक द्वारा दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद में दीवार में चुनवा दिया गया । दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए । गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पुत्रों की शहादत में कहा था-
सब पुत्रन के कारन वार दिए पुत चार ।
चार मुुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार ।।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में आनंदपुर, भंगानी, नंदौन, गुलेर, निर्मोहगढ, बसोली, चमकोर, सरसा व मुक्तसर सहित 14 युद्ध किए। इन जंगों में पहाड़ी राजाओं एवं मुगल सूबेदारों ने हर बार मुंह की खाई। गुरू गोबिन्द सिंह ने कभी स्वार्थ व निजहित के लिए लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि उन्होंने उत्पीड़न व अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इस कारण से हिन्दु व मुस्लिम धर्मों के लोग उनके अनुयायी थे।
सितम्बर 1708 में गुरू जी दक्षिण में नांदेड़ चले गए और बैरागी लक्ष्मण दास को अमृत छका और युद्व कौशल से पारंगत कर बंदा सिंह बहादुर बनाया और उन्हें खालसा सेना का कमाण्डर बनाकर संघर्ष के लिए पंजाब भेज दिया। पंजाब पहुंच कर बन्दा सिंह बहादुर ने चप्पा चीड़ी की जंग जीती।
अक्तूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी आखिरी सांस ली। इस प्रकार से पहले पिता गुरु तेग बहादुर सिंह, फिर चारों पुत्रों ने और बाद में श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने स्वयं बलिदान देकर धर्म की रक्षा की।
स्वामी विवेकानंद जी ने गुरू गोबिंद सिंह जी को एक महान दार्शनिक, संत, आत्मबलिदानी, तपस्वी और स्वानुशासित बताकर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की थी। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था मुगल काल में जब हिन्दु और मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोगों का उत्पीड़न हो रहा था तब श्री गुरू गोबिंद जी ने अन्याय, अधर्म और अत्याचारों के खिलाफ और उत्पीड़ित जनता की भलाई के लिए बलिदान दिया था जो एक महान बलिदान है। इस प्रकार से गुरू गोबिंद सिंह जी महानों में महान थे।
गीता में कहा है कि ’’कर्म करो, फल की चिन्ता न करो’’। ठीक इसी प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है ’देह शिवा बर मोहे इहै, शुभ करमन ते कबहूं न टरूं’ यानि हम अच्छे कर्मो से कभी पीछे न हटें, परिणाम भले चाहे जो हो। उनके इन विचारों व वाणियों से पता चलता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने कर्म, सिद्धान्त, समभाव, समानता, निडरता, स्वतंत्रता का संदेश देकर समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। उन्होंने कभी भी मानवीय व नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया। आज फिर जरूरत है कि उनके बताए मार्ग पर चल हम सभी धर्म, समाज व भाईचारे को मजबूत कर एक भारत-श्रेष्ठ भारत के लिए कार्य करें।
जय हिन्द!