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    महर्षि दयानन्द जयंती समारोह (रोहतक)

    Publish Date: फ़रवरी 26, 2022

    महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के कुलपति-प्रोफेसर राजबीर सिंह जी,
    सीकर (राजस्थान) से सांसद-स्वामी सुमेधानंद जी,
    सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा के प्रधान-स्वामी आर्यवेश जी,
    गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली के प्रधानाचार्य-स्वामी प्रणवानंद जी,
    गुरुकुल झज्जर के प्रधानाचार्य आचार्य विजयपाल जी,
    गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पूर्व-कुलपति डॉ सुरेंद्र कुमार जी,
    आर्यप्रतिनिधि सभा हरियाणा के प्रधान मास्टर रामपाल आर्य जी, देश भर से पधारे विभिन्न आर्यसमाजी भाईयों, आचार्यगण, पदाधिकारीगण, शिक्षकगण, कर्मचारीगण, प्रिय विद्यार्थियो तथा पत्रकार एवं छायाकार बन्धुओं !
    महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय का कुलाधिपति होने के नाते मैं महर्षि दयानंद जयंती की आप सभी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं देता हूं ।
    आर्य समाज के प्रणेता और आधुनिक भारतीय समाज के पथ-प्रर्दशक महर्षि दयानन्द सरस्वती की 198वीं जयंती के उपलक्ष में आयोजित इस ’’विद्वत सम्मेलन’’ में उपस्थित होकर मुझे अत्यन्त हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है। इस सम्मेलन में ’’महर्षि दयानन्द का शिक्षा दर्शन’’ विषय पर देश भर से आए प्रख्यात विद्वानों, शिक्षाविद तथा आचार्यगण ने अपने विचार रखे है। आपके ये विचार निश्चित रूप से आधुनिक समाज को नई दिशा देने का काम करेंगें।
    युग पुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती उच्च कोटि के सच्चे राष्ट्रवादी, महान समाज सुधारक, विद्वान, विचारक, सांस्कृतिक क्रान्तिकारी और भारतीयता के प्रबल समर्थक थे। इनका जन्म गुजरात में एक बहुत ही समृद्ध परिवार में 1824 में हुआ। अपनी शिक्षा के दौरान ही ये वेद-शास्त्रों व धार्मिक पुस्तको के अध्ययन में लग गए।
    दलित वर्ग और नारी के उत्थान के लिए तथा सामाजिक कुरितियों के उन्मुलन के लिए महर्षि दयानन्द ने जो अनुकरणीय कार्य किया है, उसे देश सदैव याद रखेगा। ऐसे महान सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा को मैं नमन्् करता हँू।
    महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रंथों में जिस विधि व पद्धति अथवा पठन-पाठन विधि का वर्णन किया है यह, वही पद्धति है, जो प्राचीनकाल ऋषि-मुनियों द्वारा प्रवर्तित की गई है। इसे ही आज आश्रम, गुरू शिक्षा पद्धति तथा वैदिक शिक्षा पद्धति कहा जाता है।
    भारतीय शिक्षा दर्शन में महर्षि दयानन्द सरस्वती के शिक्षा से सम्बन्धित दृष्टिकोण मंे वैदित पद्धति की झलक मिलती है। उन्होंने अपने संस्कारविधि नामक गंथ में गर्भावस्था में ही बच्चे की शिक्षा के महत्व का वर्णन किया है। उनका मानना था कि शिक्षा व्यक्ति को विद्या, नैतिकता और व्यवहार से सम्बन्धी सुसंस्कारों से सुसज्जित करती है। स्वामी दयानन्द के अनुसार नैतिक शिक्षा और संस्कारो के बिना मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं हो सकता।
    जिस प्रकार से व्यक्तियों का बौद्धिक सामर्थ्य भिन्न-भिन्न होने के कारण सब मनुष्यों को विद्वान् नहीं बनाया जा सकता, किन्तु व्यवहार सम्बन्धी उत्तम संस्कार देकर सबको सुसंस्कृत और सभ्य अवश्य बनाया जा सकता है। इसलिये विद्या के साथ नैतिक मूल्यों और व्यवहारिक शिक्षा का दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है।
    आज हमें गर्व है कि महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित आर्य समाज ने भारतीय समाज में सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से सुधार लाने और देश को स्वतंत्र कराने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    स्वामी जी ने योग विद्या एवं शास्त्र ज्ञान श्री विरजानंद से प्राप्त किया था। ज्ञान प्राप्ति के उपरांत जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुरुदक्षिणा देने की बात कही तब उनके गुरु विरजानंद ने समाज में व्याप्त कुरीतियां, अन्याय, और अत्याचार के विरुद्ध कार्य करने और आम जन में जागरूकता फैलाने को कहा था। उन्होंने तभी से समाज में बदलाव का बीड़ा उठाया।
    उन्होंने ईसाई, मुस्लिम व अन्य धर्म ग्रंथो का अध्ययन किया लेकिन ईश्वर के अस्तित्व से सम्बन्धित वेदों जैसा प्रमाणित दस्तावेज उन्हें किसी भी धर्म ग्रंथ में नही मिला। उन्होंने वेदों के शास्त्रीय ज्ञान के लिए हिंदी में सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ लिखा।
    स्वामी जी ने 1875 में मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना कर ओउम् शब्द को ईश्वर को सर्वोत्तम नाम दिया।
    देश की नई पीढ़ी को वैदिक संस्कृति का ज्ञान देेने में आर्य समाज अग्रणी रहा है। महर्षि दयानन्द जी ने जीवन की सच्चाई की वास्तविकता बताने के लिए तथा वेदों का शास्त्रीय ज्ञान देने के लिए प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने महाभारत के वाक्यांश ‘‘धर्मो रक्षति रक्षतः’’ ध्यान में रख कर सत्य के बारे में लोगों को जागरूक किया। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द सरस्वति जी सत्य के सच्चे संवाहक बने।
    आज देश आजादी का अमृृत महोत्सव मना रहा है। इस मौके पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की आजादी के आन्दोलन में भूमिका को याद करना हमारे लिए गर्व की बात है।

    स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यतः आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को है।
    हमारे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम, 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार थे।
    स्वामी जी जब देश का भ्रमण कर रहे थे तब उन्होंने देखा की ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों पर बहुत जुल्म कर रही है।
    उन्होंने इन अत्याचारों के विरुद्ध लोगों को जागरूक करना शुरू किया और पूर्ण स्वराज हासिल करने के लिए लोगों को एकजुट करना शुरू किया।
    1857 की क्रांति असफल रही थी। तब स्वामी जी ने कहा था-इस हार से निराश होने की जरूरत नहीं है। यह तो खुश होने की बेला है। आने वाले समय में बहुत जल्द एक और आजादी की लड़ाई की लहर उठेगी जो जालिम अंग्रेजी हुकूमत को किनारे लगा देगी।
    आखिरकार हुआ भी यही महर्षि दयानन्द जी के विचारों से ओत प्रोत होकर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा दिया गया बलिदान काम आया और 15 अगस्त 1947 में अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंका और देश आजाद हुआ।
    स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान को देखते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था-भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने महर्षि दयानन्द को आधुनिक भारत का निर्माता कहा था।
    देश की मजबूती, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा और अध्यात्म के क्षेत्र में महर्षि दयानन्द जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने देश को जो दर्शन 19वीं सदी में दिया, उसी दर्शन को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार आगे बढ़ा रही है।
    राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा को रोजगारोन्मुखी विश्वस्तरीय और आधुनिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों और वैदिक संस्कृृति को बढ़ावा दिया गया है।

    वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के सपने साकार करने और आर्य समाज द्वारा स्थापित मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाने में निरंतर कार्य रहे हैं।
    उन्होनें गरीबों के उत्थान, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता अभियान शुरू किए है उससे नव भारत का निर्माण होगा।
    मैं अपने इस विश्वविद्यालय के अध्यापकों और विद्यार्थियों से यह अपेक्षा करता हूं कि जिस महापुरुष के नाम पर यह विश्वविद्यालय है उसके शिक्षादर्शन का असर हमारे कार्य और व्यवहार में अवश्य दिखना चाहिए ।

    मुझे आशा है कि तपस्वी सन्यासियों और विद्वान् आचार्यों द्वारा महर्षि दयानंद के शिक्षा से सम्बन्धित सिद्धांतों के बारे में दिया गया मार्गदर्शन से हम सब के लिए तथा विशेष रूप से हमारे शोधार्थियों और विद्यार्थियों के लिए वरदान साबित होगा ।
    मैं इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिए महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर राजबीर सिंह तथा उनकी टीम को बहुत-बहुत बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि यह विश्वविद्यालय सीखने और सिखाने के सिद्धान्त को ध्यान में रख कर अध्ययन-अध्यापन के माध्यम से अपने विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए नैतिक शिक्षा को भी अपनी पाठ्यचर्या का हिस्सा बनाएगा। तभी हम महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के स्वप्नों को साकार कर पाएंगंे।
    हम सब इन अभियानों से जुड़ कर नव भारत निर्माण के लिए कार्य करें। यही महर्षि दयानन्द सरस्वती जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
    मैं एक बार फिर महर्षि दयानन्द जयंती समारोह में मुझे आमंत्रित करने के लिए आप सबका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप महर्षि दयानन्द सरस्वती के नियमों व सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहेंगें।

    जय हिंद – जय हरियाणा !